शनिवार, 1 जनवरी 2011

" अंतर्वेदना "

पिघल रहा जीवन प्रतिछन है
कितना व्याकुल अन्तर्मन है !
कैसी तेरी प्रेम पिपाशा
निस रोती फिर भी अभिलाषा
आज बदरिया मुझे बताना
कौन तेरा निष्ठुर प्रियतम है
कितना व्याकुल अन्तर्मन है !
रोज किसे समझाने जाती
नयनों का नीर गँवाने जाती
ओ वियोगनी अब मत रोना
शेष अभी तेरा यौवन है
कितना व्याकुल अन्तर्मन है !
आसमान की तुम हो बाला
फिर भी करती रहती नाला
दुख में सुख में शीश उठाकर
चलना ही जिसका जीवन है
कितना व्याकुल अन्तर्मन है !