बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

" व्यथा "

सपना बन कर रह जाते हो
फिर भी मुझको अति भाते हो !
मांझी बन पतवार हिला कर
नैया को मझधार में लाकर
सुंदर सा संसार रचाकर
आंधी बनकर छल जाते हो
फिर भी मुझको अति भाते हो !
बन जाते तुम उत्तुंग लहर
मैं रह जाती आहें भरकर
जब डर से कांपा करती मैं
तुम मंद-मंद मुस्काते हो
फिर भी मुझको अति भाते हो !
मैं जल समाधि ले लेती हूँ
तेरी पीड़ा हर लेती हूँ
जब चलती मैं पाताल लोक
तब तुम मृदुगान सुनाते हो
फिर भी मुझको अति भाते हो !
सागर तल बन टकराते हो
तब भी तुम दर्प दिखाते हो
जब हो जाती हूँ सौ दुकड़े
सपना बनकर रह जाते हो
फिर भी मुझको अति भाते हो !